बिक रही ग़रीबी का, ग़रीब ही खरीददार है।
अमीरों के शहर में, ये गरीबों का बाजार है।
कुछ रोटियां है मेरे पास, दे सकता हूँ,
मगर तेरे खाली पेट में, मेरा पल रहा रोजगार है।
ला सकता हूँ तेरे होंठो पर मुस्कुराहट लेकिन,
तेरी बेबस तश्वीरो में ही चमकता व्यापार है।
कैसे मिटा दूँ तुझे मैं साहित्य की किताबों से।
तू है इसलिए कई कवि, लेखक व पत्रकार है।
बड़ी मंदी थी अफवाहों के बाजार में कब से
तू निकला सड़क पर,अब बाजार गुलजार है।
तू धार है तलवार की, तेरा दर्द मेरी ढाल है।
सत्ताओं से लड़ने का एक तू ही हथियार है।
समय के गर्भ में न खोज अपने गुनहगार तू,
जिम्मेदार तेरे हाल का, आज की सरकार है?
पूर्व की सत्ताओं ने भी, छला होगा तुझे मग़र,
अतीत के गुनाहों का, ये वर्तमान गुनहगार है?
– राजेश आनन्द