हौसला नहीं था मुझमे खुलकर जलने का,
इसलिए राख बन कर सुलगना पड़ा।
बच कर निकलना मुश्किल था दुश्मनो से,
इसलिए रौंद कर उन्हें आगे बढ़ना पड़ा !
मत कहो जालिम मुझे ऐ मुहब्बत वालो,
यू ही नही मुझे नज़रिया बदलना पड़ा।
नाक़ाबपोशों से भरा है ये शरीफ़ों का शहर,
इसलिए मुझे भी नक़ाब पहनना पड़ा।
नापसंद है जमाने को खामोशी भरी तर्वियत।
बर्फ बनकर मुझे भी मुसलसल पिघलना पड़ा।
कैद रखता हूँ ज़हर को, सीने की अचकन में,
अब मज़बूर किया तुमने तो उगलना पड़ा।
यकीनन घुटता हूँ दो चेहरों के साथ जीने में,
मक्कारी की जंग में मग़र मुझे भी उतरना पड़ा।
बच कर निकलना मुश्किल था दुश्मनो से,
इसलिए रौंद कर उन्हें आगे बढ़ना पड़ा !
-राजेश आनंद
Please follow and like us: