कौन खड़ा था किसके ऊपर,कहाँ पता दीवारों को।
नींव गड़ी है मिट्टी में, यह संशय था मीनारों को।
मैं ही था वह नींव तुम्हारी, जिससे लोग अपरचित थे।
थाम रखी थी हस्ती गुपचुप, लोगों में तुम चर्चित थे।
मेरे आस पास की मिट्टी खोदी, डुबो दिया फिर पानी में।
मैं टूट रहा हूँ धीरे धीरे, तुम अब भी हो रवानी में।
हाँ… थे तुम ऊँचे पर्वत तक,पर ऊंचाई का अंदाजा था।
मैं कितना गहरा हूँ, सब में ये भय ज्यादा था।
कब माँगा था ताज तुम्हारा, जो विवस हुए तुम हटने को।
दो मुट्ठी ही काफी थी, मिट्टी मुझ पर ढकने को।
जब तेरी ईंटे महक रही थी, वसंती पुष्प सुगंधों से।
मेरी ईंटे सिसक रही थी, दबी हुई दुर्गंधों से।
मेरा साहस कांप रहा था, धीरज फिर भी जिन्दा था।
नीर भरा था आँखों में, हाँ मैं थोड़ा सा शर्मिंदा था।
जर्जर होते देख रहे थे,तुम मुझको खड़े अटारी से।
साहस मेरा टूट गया जब झाँका तुम्हे किनारी से।
खड़े हुए हैं नए नवेले, भवन जो तेरी छाया में।
हैं अब भी वो बौने तुझसे, पर कुंठित गम की साया में।
नफरत कितनी भरी है उनमें, देखो तुम उस बस्ती को।
मेरी हस्ती मिटा दी तुमने,अब बचा लो अपनी हस्ती को।
राजेश आनंद

It’s really deep and nice