पिछली शताब्दी से लेकर अब तक दलित उत्थान के लिए मूलतः दो महापुरुषों ने ही सचमुच काम किया है। एक सावकर जो खुद ब्राह्मण थे दूसरे डॉ अम्बेडकर जो ब्राह्मण उपनाम वाले दलित थे। कोई इतिहासकार या इतिहास का ज्ञान रखने वाला भद्र पुरुष नकार सकता है क्या इस सत्यता को? लेकिन सावरकर के इस पक्ष को इतिहासकारो ने बड़ी निर्लज्जता के साथ समय के गर्भ में गाड़ दिया था। तथापि खो तो अम्बेडकर भी गये होते परंतु राजनीति (*चिरंजीवी रहे*) कि उसने अम्बेडकर को बाहर निकाल कर ले आयी। कांशीराम वह पहले प्रभावी राजनेता थे जिन्होंने अम्बेडकर के महत्ता से समाज को परिचित कराया। उन्होंने लोगो को बताया कि आप जिस लोकतंत्र पर बाँछे मार रहे हो मूलतः उसमे डॉ आंबेडकर का महत्वपूर्ण योगदान है। उत्तरार्ध में दलितों की राजनीति करने वाले नेता ने जिस तरह अम्बेडकर को आरक्षण देने वाले व्यक्ति के रूप में प्रचारित करके उन्हें न केवल बौना बना दिया, अपितु सर्व समाज मे उनकी स्वीकारिता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया। यह बिलकुल उसी तरह था जैसे कांग्रेस और उनके चम्पू इतिहासकारो ने सावरकर जैसे भविष्यदृष्टा को भी हिंदूवादी रंग को छोड़कर बाकी रंगों में इतना कोयला भर दिया जिससे उनका चमकदार व्यक्तित्व श्याह बन गया और जिसकी कालिख अब तक राष्ट्रवादी पार्टिया पूर्णतः धुल नही पायी।यदि आप मुझे गलत ठहरा सकते है तो ठहरा कर दिखाइए। मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि भविष्यदृष्टा हमेशा से समाज मे निर्दयी के रूप में प्रस्तुत किये जाते रहे है और बौने (जो 6 माह के बाद के भी भविष्य को भी नही भाप पाते) को वही समाज देवता की तरह देखता है। सावरकर ने कांग्रेस की राष्ट्र के भविष्य को हानि पहुचाने वाली लचर नीतियों और मुस्लिम तुष्टिकरण का खुल कर विरोध किया। उनका मानना था कि कांग्रेस का मुस्लिम तुस्टीकरण न केवल हिन्दुओ के अधिकारों को निगल रहा है अपितु मुसलमानों को भी जिस मार्ग की ओर लेकर जा रहा है यह उनके लिए लाभकारी नही है। एक बार कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव मिलने पर सावकर ने कहा था कि कांग्रेस में शामिल होकर अगली पंक्ति में बैठने की जगह वह राष्ट्रवादियो के साथ भीड़ के पीछे खड़ा होना पसंद करेंगे। वास्तव में सावकर एक उत्कृष्ठ भविष्य दृष्टा थे जिसे समाज ने हमेशा निर्दयी और कट्टरपंथी कि तरह देखा।गांधी जी जिन्होंने तुष्टिकरण की अति की और कश्मीर में खड़े होकर कहा कि कश्मीर में मुझे रोशनी की किरण नज़र आती है और उनके इस कथन के चंद वर्षो बाद ही उसी कश्मीर में वही किरण आज तक विष्फोटक और लहू का दरिया बन कर बह रही है। मन को भाने वाली बात करने वाले नेता को यदि समाज अपना नेता मानता है तो मुझे उस समाज मे समाज कहने लायक कुछ नही दिखता। वास्तव में नेता वह होता है जो देश और समाज के भविष्य को सुरक्षित रखने हेतु यदि उसे अप्रिय बातें बोलनी पड़े तो वह बोले। कठोर निर्णय लेने पड़े तो वह ले… वह क्यो न किसी भी समाज, समुदाय, पंथ या जाति के प्रतिकूल हो।मेरा संबोधन प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के लिए नही है इसलिये मैं आपको उदाहरण देते हुए यह नही बताना चाहता कि लोहे की चोट से डरने वाला पत्थर कभी मूर्ति नही बन सकता।
सावकर और डॉ अम्बेडकर
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