
पिछले साल CAA के नाम पर दिल्ली शहर की कुछ सड़के रोकी गयी थी, सरकार समझाती रही कि यह कानून नागरिकता लेने का नही बल्कि देने का कानून है मगर समझाने वालों से ज्यादा बहकाने वाले ताकतवर निकले, और अंततः 53 लोगों की मौत के साथ आंदोलन का अंत हुआ।

ऐसा नही था कि आंदोलनकारियों को इतनी सी बात समझ नही आई होगी, लेकिन बात बात पर देश को ठप कर देने वाले लोग, चुनाव में हारे हुए लोग, मोदी से नफरत करने वाले लोग, भारत को सबक सिखाने वाले लोग, अनुच्छेद 370 के हटने से खफा हुए लोग, ट्रिपल तलाक को समर्थन देने वाले लोग, हिंदुत्व की कब्र खोदने का सपना देखने वाले लोग, राममंदिर पर आए फैसले से जले हुए लोग, भीम मीम का गठबंधन बनाने वाले लोग, बामपंथ की कब्र में अपना दिमाग सड़ा चुके लोग, खुद को सेक्युलर साबित करने में जुटे उदारवादी लोग, हिन्दुराष्ट्र के बनने की संभावना से खौफ खाये हुए लोग और भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के सपना देखने वाले लोग एकजुट हो गये । नमें से कुछ प्रभावशाली लोग खामोश थे और कुछ उकसा रहे थे।
असमंजस की स्थिति में व्यक्ति हमेशा उसकी सुनता है जो उसके परिवार का होता है, जाति का होता है या धर्म का होता है। सरकार बार बार बिल को नागरिकता देने का बिल होने का दावा करती रही मग़र विरोधियों द्वारा उन्हें बार बार यकीन दिलाया गया कि ये नागरिकता छीनने वाला बिल है, फलस्वरूप देश के मुस्लिमो और बामपंथियों का एक बड़ा तबका सड़क पर आ गया। लोकत्रंत्र में हमेशा से सरों को गिना जाता है अतः दुनिया इस बात में हैरान थी कि इतनी बड़ी संख्या में लोग सडको पर है… और इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं? इसका मतलब है कि बिल में जो कुछ लिखा है, उसे वह खुद पढ़ नही पा रहें है और सरकार जो पढकर सुना रही है उस पर कानो को यकीन नही हो रहा है क्योंकि कानों और आँखों के बीच भारी द्वन्द है। ऑंखें कुछ और देख रहीं हैं, कान कुछ और सुन रहें हैं!
सच और झूठ की लड़ाई का फैसला करना आसान होता है मगर नरेटिव की लड़ाई में हार या जीत के बाद भी फैसला कर पाना मुश्किल होता है। 53 लोगों की मौत के बाद भी दिल्ली इस असमंजस में बनी रही कि आखिर सच था क्या? झगड़ा बिल का था या नरेटिव का? हिन्दू मुस्लिम का था या विचारधारा का? मोदी के समर्थकों और विरोधियों का था या राष्ट्रवादियों और बमपंथियो का?
एक साल बाद एक बार दिल्ली फिर बंधक बना ली गयी। इस बार पिछले साल से ज्यादा सड़के रोकी गयी, मुद्दा एक बार फिर CAA की तरह ही बनता है दिख रहा है। मुद्दा APMC एक्ट का है। सरकार ने तीन नए बिल बनाये जो वस्तुतः APMC एक्ट से कुछ लेने का नही बल्कि साथ मे कुछ देने का है और यही बात सरकार बार बार समझ रही यही मग़र आंदोलनकारी समझने को तैयार नही हैं। आंदोलनकारियों की शुरुआती मांग MSP की गारंटी देने को लेकर थी जिसे सरकार ने ये कह कर मान लिया कि MSP की पुरानी व्यवस्था बनी रहेगी, आंदोलनकारियों ने कहा कि लिखकर दो, सरकार ने उसे भी मान लिया, मुद्दा इससे पहले सुलझता एकाएक मांग बढ़ा दी गयी, बढ़ी हुई मांग में बिल वापसी थी जिसके नीचे कुछ भी स्वीकार्य नही। साथ ही कुछ जगह इस गिरोहों के लोगों ने जल्दबाजी करने से भी नही चूके और उन्होंने देशद्रोह जैसे कई धाराओं में जेल में बंद देशद्रोहियो की रिहाई तक की मांग कर डाली।
अब सरकार धर्मसंकट में आकर खड़ी हो गयी कि अगर वह आंदोलनकारियों को किसान समझ कर इस मांग को मान लेती है तब तो कल दूसरे गिरोह के लोग, एक बार फिर आकर बैठ जायेगे और राममंदिर, अनुच्छेद 370 या और कई महत्वपूर्ण बिलो को वापस लेने के लिए अड़ जायेंगे।
भारत, दुनिया की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है, इस समय भारत के जितने दोस्त है, दुश्मन भी उतने ही है। आर्थिक और रक्षा के क्षेत्र में भारत, दुनिया के कई बड़े बड़े देशों को चुनैतिया दे रहा है ऐसे में न सिर्फ भारत के दुश्मन बल्कि कई मित्र राष्ट्र भी उसे यही रोकना चाहतें हैं और यही कारण है कि भारत की अर्थव्यवस्था को रोक देने वाले ऐसे आंदोलनों में सुख सुविधाओं और पैसों की कमी न आने दी गयी थी और न ही आगे आने दी जाएगी। अगर ऐसे आंदोलन सालों चलेंगे तब भी पिज़ा बर्गर और मसाज सेंटर जारी रहेगें, इसलिए मेरा मानना है कि सरकार किसानों के नाम पर चल रहे इस आंदोलन के सामने झुककर भारत विरोधी ताकतों को मजबूत नही होने देना चाहेगी।
-राजेश आनंद
फ़ोटो: साभार प्रखर पुंज जी